Wednesday, September 29, 2010

सब परस्पर भाई-भाई हैं।

मनुष्य चाहे जन्मना हिंदू हो, यहूदी हो, ईसाई हो या मुसलमान या अन्य किसी धर्म, मत व पंथ को मानने वाला हो, सबके जीवन का मूल स्रोत एक ही है। सब एक माँ-बाप की संतान हैं, सब परस्पर भाई-भाई हैं। यह तथ्य न केवल वेद और कुरआन सम्मत है बल्कि विज्ञान सम्मत भी है। इसके साथ एक सर्वमान्य तथ्य यह भी है कि मनुष्य चाहे एक हजार साल जिन्दा रहे, उसकी मृत्यु सुनिश्चित है। मृत्यु जीवन की अनिवार्य नियति है। इस नियति से जुड़ा है मानव जीवन का एक बड़ा अहम सवाल कि हमें मृत्युपरांत कहाँ जाना है ? मृत्युपरांत हमारा क्या होगा ? इस एक अहम सवाल से जुड़ी है हमारे जीवन की सारी आध्यात्मिकता ()Spirituality) और सर्वांग सम्पूर्णता। आइए इस अहम विषय पर एक तथ्यपरक दृष्टि डालते हैं।
जड़वादियों (Materialists) का मानना है कि यहीं आदि है और यही अंत है। (Death is end of life) ‘‘भस्मी भूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः।’’ देह भस्म हो गया फिर आना-जाना कहाँ ? अनीश्वरवादी (Atheist) महात्मा गौतम बुद्ध ने कहा, ‘‘भला करो, भले बनो, मृत्युपरांत क्या होगा यह प्रश्न असंगत है, अव्याकृत है।’’ हिंदूवादियों (Polytheist) का मानना है कि वनस्पति, पशु-पक्षी और मनुष्यादि में जीव (Soul) एक सा है और कर्मानुसार यह जीव (Soul) वनस्पति योनि, पशु योनि और मनुष्य योनि में विचरण करता रहता है। जीवन-मरण की यह अनवरत श्रंखला है। रामचरितमानस के लेखक गोस्वामी तुलसीदास के मतानुसार कुल चैरासी लाख योनियों में 27 लाख स्थावर, 9 लाख जलचर, 11 लाख पक्षी, 4 लाख जानवर और 23 लाख मानव योनियाँ हैं। हिंदू धर्मदर्शन के मनीषियों ने इस अवधारणा को आवागमनीय पुनर्जन्म का नाम दिया है।
इस अवधारणा (Cycle of Birth & Death) के संदर्भ में हिंदू धर्मदर्शन के चिंतकों का एक मजबूत तीर व तर्क है कि संसार में कोई प्राणी अंधा जन्मता है, कोई गूंगा और लंगड़ा जन्मता है। कोई प्रतिभाशाली तो कोई निपट मूर्ख जन्मता है। यहाँ कोई खूबसूरत है, कोई बदसूरत है। कोई निर्धन है तो कोई धनवान है। कोई हिंदू जन्मता है तो कोई मुसलमान जन्मता है। कोई ऊँची जात है तो कोई नीची जात है। जन्म के प्रारम्भ में ही उक्त विषमताएं पिछले जन्म का फल नहीं तो और क्या हैं ? इसी धारणा के साथ हिंदू मनीषियों की यह भी मान्यता है कि मनुष्य योनि पूर्व जन्म के अच्छे कर्मों से मिलती है। ‘‘बड़े भाग मानुष तनु पाया’’। यहाँ हिंदू चिंतकों के उक्त दोनों तथ्यों में असंगति स्पष्ट प्रतीत होती है।

10 comments:

  1. tumhaari soorat to aisi nahi lgti parantu likhte khoob ho

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  2. मूल स्रोत एक ही है।

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  3. मूल स्रोत एक ही है।

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  4. मूल स्रोत एक ही है।

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  5. मूल स्रोत एक ही है।

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  6. हिंदू धर्मदर्शन के चिंतकों का एक मजबूत तीर व तर्क है कि संसार में कोई प्राणी अंधा जन्मता है, कोई गूंगा और लंगड़ा जन्मता है। कोई प्रतिभाशाली तो कोई निपट मूर्ख जन्मता है। यहाँ कोई खूबसूरत है, कोई बदसूरत है। कोई निर्धन है तो कोई धनवान है। कोई हिंदू जन्मता है तो कोई मुसलमान जन्मता है। कोई ऊँची जात है तो कोई नीची जात है। जन्म के प्रारम्भ में ही उक्त विषमताएं पिछले जन्म का फल नहीं तो और क्या हैं ? इसी धारणा के साथ हिंदू मनीषियों की यह भी मान्यता है कि मनुष्य योनि पूर्व जन्म के अच्छे कर्मों से मिलती है।
    इसी बहाने हम अच्‍छे कर्म कर सकें तो बुराई क्‍या है ??

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  7. उपर्युक्त तथ्यों और तर्कों से सिद्ध हो जाता है कि आवागमनीय पुनर्जन्म की धारणा एक अबौद्धिक और अवैज्ञानिक धारणा है। इस मिथ्या व कपोल-कल्पित मान्यता ने करोड़ों मनुष्यों को जीवन के मूल उद्देश्य से भटका दिया है। यह धारणा मनुष्य जीवन का कोई लक्ष्य निर्धारित नहीं करती। मनुष्य के सामने कोई उच्च लक्ष्य न हो, कोई दिशा न हो तो वह जाएगा कहाँ ? विचित्र विडंबना है कि जीवन है मगर कोई जीवनोद्देश्य नहीं है। बिना किसी जीवनोद्देश्य के साधना और साधन सब व्यर्थ हो जाता है। यात्रा में हमारे पास कितनी भी सुख-सुविधा, सामग्री, साधन हो, मगर यह पता न हो कि जाना कहाँ है ? हमारी दिशा, हमारी मंजिल, हमारा गंतव्य क्या है तो हम जाएंगे कहाँ ? दिशा और गंतव्य निश्चित हो तभी तो गंतव्य की दिशा की तरफ चला जा सकता है। अगर दिशा का भ्रम हो तो मनुष्य कभी सही दिशा की तरफ नहीं बढ़ सकता। एक व्यक्ति दौड़ा जा रहा है और उसे पता न हो कि किधर और कहाँ जाना है तो क्या लोग उसे बेवकूफ नहीं कहेंगे?

    हमारे जीवन में भौतिक कारणों, अकारणों का बड़ा महत्व है। यहाँ किसी का विकलांग, निर्धन, रोगी अथवा स्वस्थ, सुन्दर और धनी होना पिछले कर्मों का प्रतिफल नहीं है। यह विषमता भौतिक, प्राकृतिक और सामाजिक असंतुलन का परिणाम है। कभी चेचक व पोलियों आदि बीमारियों को मनुष्य का भाग्य और पूर्वजन्म का फल समझा जाता था मगर आज वैज्ञानिक प्रयोगों और प्रयासों द्वारा मनुष्य ने इन पर विजय प्राप्त कर ली है। यहाँ के परिणाम किसी पूर्वकृत योनियों के सत्कर्म या पाप कर्म के परिणाम नहीं हैं। यहाँ की विषमता को समझने के लिए हमें सृष्टिकर्ता की योजना (Creation Plan of God) को भी समझना होगा।

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  8. मरणोत्तर जीवनः तथ्य और सत्य
    स्वामी दयानंद सरस्वती ने ‘सत्यार्थ प्रकाश’ के नवम समुल्लास में आवागमनीय पुनर्जन्म की धारणा का प्रतिपादन करते हुए लिखा है, ‘‘पूर्व जन्म के पुण्य-पाप के अनुसार वर्तमान जन्म और वर्तमान तथा पूर्व जन्म के कर्मानुसार भविष्यत् जन्म होते हैं।’’ (9-73)
    इस विषय में लोगों ने स्वामी जी से कुछ प्रश्न भी किए हैं, जो निम्नवत् हैं -
    1. जन्म एक है या अनेक ? (9-67)
    2. जन्म अनेक हैं तो पूर्व जन्म और मृत्यु की बातों का स्मरण क्यों नहीं रहता? (9-68)
    3. मनुष्य और पश्वादि के शरीर में जीव एक जैसा है या भिन्न-भिन्न जाति का? (9-74)
    4. मनुष्य का जीव पश्वादि में और पश्वादि का मनुष्य के शरीर में आता जाता है या नहीं? (9-75)
    5. मुक्ति एक जन्म में होती है या अनेक में ? (9-76)
    स्वामी जी उपरोक्त प्रश्नों का उत्तर निम्न प्रकार देते हैं :
    1. जन्म अनेक हैं।
    2. जीव अल्पज्ञ है, त्रिकालदर्शी नहीं, इसलिए पूर्व जन्म का स्मरण नहीं रहता।
    3. मनुष्य व पश्वादि में जीव एक सा है।
    4. पाप-पुण्य के अनुसार मनुष्य का जीव पश्वादि में और पश्वादि का मनुष्य शरीर में आता जाता है।
    5. मुक्ति अनेक जन्मों में होती है।
    मनुस्मृति के हवाले से स्वामी जी ने लिखा है :-
    ‘‘स्थावराः कृमि कीटाश्च मत्स्याः सर्पाश्च कच्छपाः।
    पशवश्च मृगाश्चैव जघन्या तामसी गतिः।’’ (9-83)

    भावार्थ : ‘‘जो अत्यंत तमोगुणी है वो स्थावर वृक्षादि, कृमि, कीट, मत्स्य, सप्र्प, कच्छप, पशु और मृग के जन्म को प्राप्त होते हैं।’’
    वेदों के पुरोधा और शोधक महर्षि दयानंद ने अपनी पुस्तक ऋग्वेदादि भाष्य-भूमिका के पुनर्जन्म अध्याय में पुनर्जन्म के समर्थन में ऋग्वेद मंडल-10 के दो मंत्रों के साथ अथर्ववेद व यजुर्वेद के मंत्र भी प्रस्तुत किए हैं :
    1. ‘‘आ यो धर्माणि प्रथमः ससाद ततो वपूंषि कृणुषे पुरूणि।
    धास्युर्योनि प्रथमः आ विवेशां यो वाचमनुदितां चिकेत’’।।
    (अथर्व0 कां0-5, अनु0-1, मं0-2)
    भाषार्थ : ‘‘जो मनुष्य पूर्वजन्म में धर्माचरण करता है, उस धर्माचरण के फल से अनेक उत्तम शरीरों का धारण करता है और अधर्मात्मा मनुष्य नीच शरीर को प्राप्त होता। जो पूर्वजन्म में किए हुए पाप पुण्य के फलों को भोग करके स्वभावयुक्त जीवात्मा है वह पूर्व शरीर को छोड़कर वायु के साथ रहता है, पुनः जल, औषधि व प्राण आदि में प्रवेश करके वीर्य में प्रवेश करता है। तदनन्तर योनि अर्थात गर्भाशय में स्थिर होकर पुनः जन्म लेता है। जो जीव अनूदित वाणी अर्थात जैसी ईश्वर ने वेदों में सत्य भाषण करने की आज्ञा दी है, वैसा ही यथावत् जान के बोलता है, और धर्म ही में यथावत स्थित रहता है, वह मनुष्य योनि में उत्तम शरीर धारण करके अनेक सुखों को भोगता है और जो अधर्माचरण करता है वह अनेक नीच शरीर अथवा कीट, पतंग, पशु आदि के शरीर को धारण करके अनेक दुखों को भोगता है।’’
    2. ‘‘द्वे सतीऽ अशृणावं पितृणामहं देवानामुत मत्र्यानाम्।
    ताभ्यामिदं विश्वमेजत्समेति यदन्तरा पितरं मातरं च।।’’
    (यजु0 अ0-19, मं0-47)
    भाषार्थ : ‘‘इस संसार में हम दो प्रकार के जन्मों को सुनते हैं। एक मनुष्य शरीर का धारण करना और दूसरा नीच गति से पशु, पक्षी, कीट, पतंग आदि का होना। इनमें मनुष्य शरीर के तीन भेद हैं, एक पितृ अर्थात् ज्ञानी होना, दूसरा देव अर्थात् सब विधाओं को पढ़कर विद्वान होना, तीसरा मत्र्य अर्थात् साधारण मनुष्य का शरीर धारण करना। इनमें प्रथम गति अर्थात् मनुष्य शरीर पुण्यात्माओं और पुण्यपाप तुल्य वालों का होता है और दूसरा जो जीव अधिक पाप करते हैं उनके लिए है। इन्हीं भेदों से सब जगत् के जीव अपने-अपने पुण्य और पापों के फल भोग रहे हैं। जीवों को माता और पिता के शरीर में प्रवेश करके जन्म धारण करना, पुनः शरीर का छोड़ना, फिर जन्म को प्राप्त होना, बारंबार होता है।’’

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  9. मरणोत्तर जीवनः तथ्य और सत्य
    स्वामी दयानंद सरस्वती ने ‘सत्यार्थ प्रकाश’ के नवम समुल्लास में आवागमनीय पुनर्जन्म की धारणा का प्रतिपादन करते हुए लिखा है, ‘‘पूर्व जन्म के पुण्य-पाप के अनुसार वर्तमान जन्म और वर्तमान तथा पूर्व जन्म के कर्मानुसार भविष्यत् जन्म होते हैं।’’ (9-73)
    इस विषय में लोगों ने स्वामी जी से कुछ प्रश्न भी किए हैं, जो निम्नवत् हैं -
    1. जन्म एक है या अनेक ? (9-67)
    2. जन्म अनेक हैं तो पूर्व जन्म और मृत्यु की बातों का स्मरण क्यों नहीं रहता? (9-68)
    3. मनुष्य और पश्वादि के शरीर में जीव एक जैसा है या भिन्न-भिन्न जाति का? (9-74)
    4. मनुष्य का जीव पश्वादि में और पश्वादि का मनुष्य के शरीर में आता जाता है या नहीं? (9-75)
    5. मुक्ति एक जन्म में होती है या अनेक में ? (9-76)
    स्वामी जी उपरोक्त प्रश्नों का उत्तर निम्न प्रकार देते हैं :
    1. जन्म अनेक हैं।
    2. जीव अल्पज्ञ है, त्रिकालदर्शी नहीं, इसलिए पूर्व जन्म का स्मरण नहीं रहता।
    3. मनुष्य व पश्वादि में जीव एक सा है।
    4. पाप-पुण्य के अनुसार मनुष्य का जीव पश्वादि में और पश्वादि का मनुष्य शरीर में आता जाता है।
    5. मुक्ति अनेक जन्मों में होती है।
    मनुस्मृति के हवाले से स्वामी जी ने लिखा है :-
    ‘‘स्थावराः कृमि कीटाश्च मत्स्याः सर्पाश्च कच्छपाः।
    पशवश्च मृगाश्चैव जघन्या तामसी गतिः।’’ (9-83)

    भावार्थ : ‘‘जो अत्यंत तमोगुणी है वो स्थावर वृक्षादि, कृमि, कीट, मत्स्य, सप्र्प, कच्छप, पशु और मृग के जन्म को प्राप्त होते हैं।’’
    वेदों के पुरोधा और शोधक महर्षि दयानंद ने अपनी पुस्तक ऋग्वेदादि भाष्य-भूमिका के पुनर्जन्म अध्याय में पुनर्जन्म के समर्थन में ऋग्वेद मंडल-10 के दो मंत्रों के साथ अथर्ववेद व यजुर्वेद के मंत्र भी प्रस्तुत किए हैं :
    1. ‘‘आ यो धर्माणि प्रथमः ससाद ततो वपूंषि कृणुषे पुरूणि।
    धास्युर्योनि प्रथमः आ विवेशां यो वाचमनुदितां चिकेत’’।।
    (अथर्व0 कां0-5, अनु0-1, मं0-2)
    भाषार्थ : ‘‘जो मनुष्य पूर्वजन्म में धर्माचरण करता है, उस धर्माचरण के फल से अनेक उत्तम शरीरों का धारण करता है और अधर्मात्मा मनुष्य नीच शरीर को प्राप्त होता। जो पूर्वजन्म में किए हुए पाप पुण्य के फलों को भोग करके स्वभावयुक्त जीवात्मा है वह पूर्व शरीर को छोड़कर वायु के साथ रहता है, पुनः जल, औषधि व प्राण आदि में प्रवेश करके वीर्य में प्रवेश करता है। तदनन्तर योनि अर्थात गर्भाशय में स्थिर होकर पुनः जन्म लेता है। जो जीव अनूदित वाणी अर्थात जैसी ईश्वर ने वेदों में सत्य भाषण करने की आज्ञा दी है, वैसा ही यथावत् जान के बोलता है, और धर्म ही में यथावत स्थित रहता है, वह मनुष्य योनि में उत्तम शरीर धारण करके अनेक सुखों को भोगता है और जो अधर्माचरण करता है वह अनेक नीच शरीर अथवा कीट, पतंग, पशु आदि के शरीर को धारण करके अनेक दुखों को भोगता है।’’

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  10. मरणोत्तर जीवनः तथ्य और सत्य
    स्वामी दयानंद सरस्वती ने ‘सत्यार्थ प्रकाश’ के नवम समुल्लास में आवागमनीय पुनर्जन्म की धारणा का प्रतिपादन करते हुए लिखा है, ‘‘पूर्व जन्म के पुण्य-पाप के अनुसार वर्तमान जन्म और वर्तमान तथा पूर्व जन्म के कर्मानुसार भविष्यत् जन्म होते हैं।’’ (9-73)
    इस विषय में लोगों ने स्वामी जी से कुछ प्रश्न भी किए हैं, जो निम्नवत् हैं -
    1. जन्म एक है या अनेक ? (9-67)
    2. जन्म अनेक हैं तो पूर्व जन्म और मृत्यु की बातों का स्मरण क्यों नहीं रहता? (9-68)
    3. मनुष्य और पश्वादि के शरीर में जीव एक जैसा है या भिन्न-भिन्न जाति का? (9-74)
    4. मनुष्य का जीव पश्वादि में और पश्वादि का मनुष्य के शरीर में आता जाता है या नहीं? (9-75)
    5. मुक्ति एक जन्म में होती है या अनेक में ? (9-76)
    स्वामी जी उपरोक्त प्रश्नों का उत्तर निम्न प्रकार देते हैं :
    1. जन्म अनेक हैं।
    2. जीव अल्पज्ञ है, त्रिकालदर्शी नहीं, इसलिए पूर्व जन्म का स्मरण नहीं रहता।
    3. मनुष्य व पश्वादि में जीव एक सा है।
    4. पाप-पुण्य के अनुसार मनुष्य का जीव पश्वादि में और पश्वादि का मनुष्य शरीर में आता जाता है।
    5. मुक्ति अनेक जन्मों में होती है।
    मनुस्मृति के हवाले से स्वामी जी ने लिखा है :-
    ‘‘स्थावराः कृमि कीटाश्च मत्स्याः सर्पाश्च कच्छपाः।
    पशवश्च मृगाश्चैव जघन्या तामसी गतिः।’’ (9-83)

    भावार्थ : ‘‘जो अत्यंत तमोगुणी है वो स्थावर वृक्षादि, कृमि, कीट, मत्स्य, सप्र्प, कच्छप, पशु और मृग के जन्म को प्राप्त होते हैं।’’
    वेदों के पुरोधा और शोधक महर्षि दयानंद ने अपनी पुस्तक ऋग्वेदादि भाष्य-भूमिका के पुनर्जन्म अध्याय में पुनर्जन्म के समर्थन में ऋग्वेद मंडल-10 के दो मंत्रों के साथ अथर्ववेद व यजुर्वेद के मंत्र भी प्रस्तुत किए हैं :

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